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सामाजिक समरसता और वैचारिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे संत रविदास,बुध्द के दो हजार साल बाद जन्में थे यह चैतन्य गुरु

सामाजिक समरसता और वैचारिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे संत रविदास

बुध्द के दो हजार साल बाद जन्में थे यह चैतन्य गुरु

देवास। महाकारुणिक शान्तिदूत तथागत बुद्ध से लगभग दो हजार वर्ष बाद पैदा हुए क्रान्तिकारी रैदास का जीवन ऊंच-नीच के भेदभाव, अन्धविश्वासों, कुप्रथाओं तथा आडम्बरों के विरोध में ही बीता था। कुछ व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरु रविदास को ईश्वर बना डाला और खुद भक्त बन बैठे हैं। परंतु अधिकांश लोग है जिन्होंने गुरु रविदास को पढ़ा तो पाया की वो कोई ईश्वर या चमत्कारी पुरुष नहीं वरन एक क्रांतिकारी व्यक्ति थे जिन्होंने भारत में सामाजिक आंदोलन की ज्योति जलाई थी। इसीलिए लोग गुरु रविदास के अनुयायी बने हुए हैं। संत रविदास जी कि जयंती पर जिले कि ग्राम पंचायत पीपलकोटा में हुए विशेष कार्यक्रम में उक्त उद्गार कार्यक्रम में पहुँचे मुख्य अतिथि कबीर चेतना मंच इंदौर के महंत महेश दास जी ने व्यक्त किये।
मुख्य वक्ता खातेगांव से कबीर मंच के संचालक देवराज जी नागर ने कहा कि वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता सदगुरू रैदास की एक वैज्ञानिक सोच हैं, जो सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं। स्वराज ऐसा होना चाहिए कि किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो, एक साम्यवादी, समाजवादी व्यवस्था का निर्धारण हो इसके प्रबल समर्थक संत रैदास जी माने जाते हैं। सन्त रैदास के मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति आक्रोश था। वह सामाजिक कुरीतियों, वाह्य आडम्बर एवं रूढ़ियों के खिलाफ एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की मांग करते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा नहीं होगी, वैचारिक विमर्श नहीं होगा और जब तक यथार्थ की व्यवहारिक पहल नहीं होगी, तब तक इंसान पराधीनता से मुक्ति नहीं पा सकता है। संचालनकर्ता व विशेष अतिथि वरिष्ठ शिक्षक हुकुम डुलगज जी ने अपने विचार व्यक्त कर कहा कि भारत की सरजमीं पर सदियों से जातिवादी व्यवस्था का प्राचीन इतिहास रहा है। जातिवादी व्यवस्था में मनुष्य एवं मनुष्य के बीच झूठा अलगाव उत्पन्न करके मानवता की हत्या कर दी गयी थी। जातिवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा देश या समाज हित में कोई भी क्रान्तिकारी कार्यक्रम ही नहीं दिये गये। इस कुटिल व्यवस्था के रोग को सदगुरू रैदास ने पहचाना। उन्होंने मानव एकता की स्थापना पर बल दिया। उनका मानना था कि जातिवादी व्यवस्था को बगैर दूर किये देश व समाज की उन्नति सम्भव नहीं है। ओछा कर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था को रैदास ने धिक्कारा है। वह कहते थे कि मानव एक जाति है। सभी मनुष्य एक ही तरह से पैदा होते हैं। मानव को पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य करना कुकर्म की श्रेणी में आता है। विशेष वक्तव्य में श्री विनोद गोरस्या ने कहा कि जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को रैदास ने नकार दिया। उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया। सन्त रैदास ने सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त करने का प्रयास किया। वे कर्म तथा स्वभाव दोनों से मानवतावादी थे। वे आज कल के समाज सुधारकों जैसे नहीं थे। उनको अपने प्रचार-प्रसार की लालसा नहीं थी। उन्होंने करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, चेतना एवं वैचारिकता द्वारा देश के दीन-हीन अवस्था और भेदभाव को समूल समाप्त करने का सदैव प्रयास किया। उनकी समदर्शी भावना, समाज उत्थान, लाचार प्राणियों की सेवा ही उत्कृष्ट मानवता थी। कला जगत से युवा चित्रकार मनोज पेठारी ने कहा कि संत रैदास जी बचपन से ही सुधारात्मक प्रवृत्ति के थे। उन्होने मानवतावादी विचारों का प्रचार-प्रसार जीवनपर्यन्त किया। रैदास जी कहते हैं कि जिस समाज में अविद्या है अज्ञानता है, उस समाज का उत्थान सम्भव नहीं है। मानव का स्वाभिमान सुरक्षित नहीं रह सकता है। वास्तविक ज्ञान का प्रकाश विद्या से ही प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए सभी मानव को विद्या अर्जन करनी चाहिए। कार्यक्रम में विशेष रूप से वरिष्ठजनों एवं ख्यातनाम व्यक्तियों को शॉल व पुष्प माला से सम्मानित किया गया। 
शोसल एक्टिविस्ट व जर्नलिस्ट पेठारी रुपराम एंव सरपंच प्रतिनिधि गंगाधर जी राठौर, जगदीश गोरस्या (जनपद सदस्य), देवीलाल जी (सरपंच), पूर्व मंडी अध्यक्ष खातेगांव से मांगीलाल जी सावनेर, रेवाराम जाट, दिनेश गोरस्या, संतोष प्रजापत, त्रिलोक डुलगज, रामाधार बाकोरे, दीपा जी काजले, श्यामलाल बाकोरे, रामस्वरूप पेठारी, रामविलास बैरागी, पूनम मौर्य, संजू गोरस्या आदि ग्रामीण उपस्थित रहे। आभार पंचायत सचिव प्रहलाद कर्मा जी ने माना।

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