ईमानदारी और मेहनत के ओजार का आनंद,,,महेश सोनी
हमारे स्कूल में एक कक्ष के दरवाजे का कुछ हिस्सा सड़ गया था और नकुचा थोड़ा सा टूट गया था। उसको ठीक करने के लिए मैंने एक कारीगर को बुला लिया। मैं उसको काम करते देख रहा था।
उसने अपने थैले से एक टूटी हुई हथौड़ी निकाली। मैं चुपचाप देखता रहा कि वह इस टूटी हथौड़ी से कैसे काम करेगा? उसने नकुचे को दरवाजे से अलग किया। उसने फिर थैले में हाथ डाला और एक पतली-सी आरी उसने निकाली। आरी भी आधी टूटी हुई थी।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि पता नहीं किसे बुला लिया ? इसके औजार ही ठीक नहीं तो फिर इससे क्या काम होगा?
वह धीरे-धीरे अपनी मुठ्टी में आरी पकड़ कर दरवाजे के सड़े हुए भाग पर चला रहा था। उसके हाथ सधे हुए थे। कुछ मिनट तक आरी आगे-पीछे किया और सड़ा हुआ हिस्सा कट गया ।उसने उस हिस्से को बाहर निकाला और बाकी हिस्से में नए नकूचे को फिट कर दिया।
मैंने उसे मजदूरी के 150 रूपये दिए तो उसने कहा कि इतने पैसे नहीं बनते सर। आप 50 रू दीजिए। मैंने कहा इतने कम क्यों। तो उसने कहा कि “सर, हर काम के तय पैसे होते हैंlआप आज अधिक पैसे देंगे, मुझे अच्छा भी लगेगा, लेकिन मुझे हर जगह इतने पैसे नहीं मिलेंगे तो फिर तकलीफ होगी। आप उतने ही पैसे दें जितना बनता है।“ मैंने धीरे से प्लंबर से कहा कि तुम नई हथौड़ी और आरी खरीद लेना। काम में आसानी होगी।
तो उसने कहा “अरे नहीं सर, औजार तो काम में टूट ही जाते हैं। पर इससे काम नहीं रुकता।“
सर, आप जिस ऑफिस में काम करते हैं वहां आप किस पेन से लिख रहे हैं उससे क्या फर्क पड़ता है? लिखना आना चाहिए। लिखना आएगा तो किसी भी पेन से आप लिख लेंगे। नहीं लिखना आएगा तो चाहे जैसी भी कलम हो, आप नहीं लिख पाएंगे। हुनर हाथ में है ओजार में नहीं । जैसे आपके लिए कलम है, वैसे ही मेरे लिए ये ओजार। ये थोड़े टूट गए हैं, लेकिन काम आ रहे हैं। नया लूंगा फिर यही हिस्सा टूटेगा। *जब से ये टूटा है इसमें टूटने को कुछ बचा ही नहीं*। अब काम आराम से चल रहा है।
मैं चुप था। दिन-भर की मेहनत से ईमानदारी से कमाने वाले के चेहरे पर संतोष की जो लकीर मैं देख रहा था, वह सचमुच हैरान करने वाला था। मुझे लग रहा था कि *कुछ लोग सारा दिन पैसों के पीछे भागते हैं।* पर जब मेहनत और ईमानदारी का ओजार हमारे पास हो तो असल में बहुत पैसों की ज़रूरत ही नहीं रह जाती।
*हमें सभी को इन जैसे लोगों से सीखना है। ये लोग स्कूल में नहीं पढ़ते/पढ़ाते। ये ज़िंदगी की यात्रा में कहीं भी किसी भी समय मिल जाते हैं।*
*इसका सार यही है कि वास्तविकता को पहचानिए।* संसार में साथ में ले जाने की सुविधा नहीं है ।या तो छोड़कर जाइए या देकर जाइए। ऐसा नहीं है कि आप प्रगति नहीं करें और पैसा नहीं कमाए लेकिन इतना ही कमाए जितना आवश्यकता हो ।यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना अच्छा है आपके लिए भी और आपके आसपास वालों के लिए भी। हमेशा प्रसन्न रहे ,व्यस्त रहें ।जब भी समय मिले परोपकार जरूर करें।
महेश सोनी प्रधान अध्यापक राज्य पुरस्कार प्राप्त शिक्षक, स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर नगर निगम*
शासकीय माध्यमिक विद्यालय महाकाल कॉलोनी देवास
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