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भारतीय लोक कला एवं लोक संस्कृति को बचाने का दायित्व समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ विद्यार्थियों का भी है- अशोक बुनकर,,आज हमें संजाबाई जैसे त्यौहारों को सहेजना है

भारतीय लोक कला एवं लोक संस्कृति को बचाने का दायित्व समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ विद्यार्थियों का भी है- अशोक बुनकर,,

आज हमें संजाबाई जैसे त्यौहारों को सहेजना है
देवास। भारतीय लोक कला संस्कृति का अनूठा त्यौहार लोक संजा की बहुुत पुरानी विरासत परम्परा ग्रामीण अंचलों में देखी परखी जाती है। यह लोक पर्व आज भी कुंवारी कन्याओं का अनुष्ठान तीज त्यौहार लोक जन मानस में रचा बसा है। पश्चिमी सभ्यता संस्कृति और आधुनिकता के दौर में भी लोक मांडने लेाक संजा को भुलाया नहीं जा सकता है। आज हमें संजाबाई जैसे तीज त्यौहारों को सहेजना ही होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। यह बात योग शिक्षक अशोक बुनकर ने शहर के वार्ड क्र. 14 स्थित माध्यमिक विद्यालय बीराखेडी में बालिकाओं द्वारा बनाई जा रही संजा पर्व के दौरान कही। साथ ही यह भी बताया कि गाय का गोबर, मिट्टी, फूल पत्तियों की पंखुडियों से संजाबाई को उकेरा जाता है वह सौंदर्य कलात्मकता का नमूना ही नहीं है अपितु लोक संसारी का चित्रांकन है। शिक्षिका बिंदुबाला शर्मा ने कहा कि संजाबाई में चांद सूरज ही नहीं रचा बसा है बल्कि गणिक के विभिन्न आकृतियों जैसे बिंदु, रेखा , किरण को समेटा गया है। शिक्षिका ज्योति गुप्ता ने बताया कि संजा के लोकगीत आज भी मन को लुभाते है और अपनी भाव भंगिमा के कलात्मक सौंदर्यता की अभिव्यक्ति देती हैं इस अवसर पर धीरेन्द्रसिंह राणा ने कहा कि इतिहास खंगाले तो रोचक कथा गाथा मिलती है। संजा को कई प्रांतों में अलग अलग नामों से पहचाना जाता है। राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र औेर मध्यप्रदेश के मालवा निमाड क्षेत्र के घर आंगनों की दीवारों पर संजा को उकेरा जाता है। कुंवारी कन्याओं का संजा माता का अनुष्ठान पर्व है जो पितृ श्राद्ध के सोलह दिनों तक चलता है। गौधूली बेला में बालिकाएं दीवारों को गोबर से लीप कर बनाती है और फूलों की पंखुडियों से सजाया जाता है। शिक्षक राकेश चौधरी ने इतिहास की बात करते हुए बताया कि हिन्दी के महान साहित्यकार पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि संजा ब्रह्माजी के द्वारा चालीस भाव भंगिमा और 69 कलाओं को उत्पन्न करती है जो संजा में दिखाई जाती हैं। संजा के बारे में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं। जितने मुंह उतनी बात, लेकिन वास्तव में संजा जैसे पर्व को विलुप्त  नहीं होने देना चाहिए। संजा माता के लोकगीत में संजा चली सासरिये, काजल टिको लो भाई काजल टीको लो, छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए, लुढ़कती जाए आदि गीत भाव विभोर करते हैं।  अशोक बुनकर ने बताया कि सांस्कृतिक स्त्रोत एवं रिसोर्स पर्सन जिला देवास पुष्पेन्द्रसिंह राठौर से अभिप्रेरित होकर संस्था में एवं घरों पर विगत दस वर्षो से संजा बाई का पर्व बालिकाओं द्वारा लगातार पूरे उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। शाला में प्रतिदिन तिथि के अनुसार संजा के विभिन्न रूप बनाने वाली बालिकाओं में शीतल माालवीय, शिवानी पासवान, लक्ष्मी सोलंकी, तनू सोलंकी, किरण बोडाना, कमला मालवीय, दिपीका गुजराती, हेमलता, नर्गिस पठान, जागृति परिहार, ज्योति पांचाल, वंदना बरेठा सहित अन्य बालिकाएं आरती के साथ पूजन पाठ करती है।

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